मुमकिन है के वो सिर्फ एक मलवा या कूड़ा हो तुम्हारे लिए,
हमारे नसलों के लिए वो सबक़ है, वो निशानी है हमारी नाकामियाबी की,
हज़ारों टूटे दिल और आँखो से बहे अनगिनत आंसुओं की,
हमारे इंसाफ़ से टूटे यक़ीन और हालात से समझोते की।
मुमकिन है तुम अब ख़ुश हो बहुत और जशन मना रहे होंगे,
क्यूँ की यह जीत है तुम्हारे अहम और ज़िद की,
अब क़ानून, सत्ता, अदालतें और अवाम भी तुम्हारी है,
मैं सवाल नहीं उठा रही, पर मायूसी बदस्तूर है।
तुम जब चाहो, किसी भी भीड़ को मुजरिम बना दो,
तुम जिसे चाहो भीड़ से पिटवा दो, मरवा दो कोई भी जुर्म बता कर,
उम्रे गुज़र जायेगी मासूम की, ख़ुद को बेगुनाह साबित करने में,
ख़बरें भी सब तुम्हारे मुताबिक़ ही होंगी, क़त्ल होगा पर कोई क़ातिल नहीं।
मुमकिन है के तुम हँस दो, इलतजा पर मेरी,
पर वो जो बेकार पड़ा मलवा है, उससे हमें लौटा दो,
इजाज़त नहीं तुम्हें के उसे किसी नापाक जगह फेंका जाए,
उसकी फिर तोहींन हो, वो मलवा नहीं जज़्बात हैं हमारे।
हमारा किसी के ईश्वर पर सवाल नहीं, ना किसी की आस्था पर इतराज़ है,
तुम्हें हक़ है अपने ख़ुदा को मानो और पूजो शान से,
तुम ही तो कहते हो के ईश्वर कण-कण में रहते हैं,
ख़ुशी भी है के अब तुम्हारे ईश्वर हमारी इबादतगाह में पूजे जायगे।