Monday, 6 May 2024

तुझे मालूम ना था

 मुस्कुरा दिए, गफ़लत में कभी आया जो तेरा ख़याल,

तू अब हमसफ़र ना सही, पर कभी हमख़याल तो था।

 

ये गर्मी की लंबी दोपहरी, सर्द तंहा रातें करती हैं कई सवाल,

कभी बारिशों में नम आँखो से ख़ुद को, हमने समझाया था।

 

यू तो कह सकते हैं मोहब्बतों की दस्तानों में एक दस्ता अपनी भी,

दर्द से बावसता होते हैं कई रिश्ते, तू हमनवा था पर बवाफ़ा ना था।

 

दिल की ज़ुबां होती तो वो करता बायाँ, आँख होती तो वो रोता बेपनाह,

लबो पर मुस्कुराहट लिये कह देते हैं, इश्क़ उसका मजबूर बहुत था।

 

मंज़िले अलग होकर मिलती नहीं कभी, अब पुकारना है बेवजह,

जो चले गये लौटकर नहीं आते कभी, क्या तुझे मालूम ना था।


Tuesday, 2 January 2024

गुमशुदा

 ये कौन-सी जंग, ये कौन-सी ताक़त का मुज़ाहिरा है,

बच्चों और औरतों पर बारिश की तरह गिरते बम,

ज़िन्दगी लाचार है, हर तरफ मौत का तमाशा है,

दुनिया ख़ामोश है, इस क़दर इंसानियत गुमशुदा है।

 

बम के धमाके, आग बरसाता सुभो-शाम आसमा,

ये धुए और धूल में ज़िन्दगियों का खो जाना,

बिल्डिंगो का किसी ताश के पत्तो की तरह भरहा के,

किसी मलवे के पहाड़ में दफ़न ज़िन्दगी गुमशुदा है।

 

बचे हुए लोगो का मलवे में तलाशना,

कुछ जिस्म, कुछ लाशो का टुकड़ो में मिलना,

आँसू, चीखें, दर्द से तड़पते, मदद को पुकारते लोग,

अपनों को ढूढ़ते, कुछ मिलते तो कुछ लोग गुमशुदा हैं।

 

ये दर्द है के थमता नहीं, चीखें हैं के बदस्तूर हैं,

ये तड़प, ये बेबसी, ये बनती टूटती उम्मीदें,

किसी जद्दोजहद से झूझती अनगिनत ज़िंदगियाँ,

जुल्म है, ज़ालिम ताकत के ग़ुरूर में गुमशुदा है।

 

लाचारी है, मासूमों पर रहम, किसी को आता नहीं,

इंसानियत का तकाज़ा, कहीं नज़र नहीं आता,

दिल दहलानेवाली लाशों का अम्बार है हर सू,

जंग नाम पर मौत के बाज़ार में ग़ैरत गुमशुदा है।




Thursday, 16 November 2023

मेरे मौला

©इरम फातिमा 'आशी'


आजज़ी है, इल्तिजा है, तवको तुझ से ही मौला,

आंख मेरी नम होती नहीं, किसीके सामने मौला,

तुझे इख़्तियार है सुनले या ठुकरादे पुकार मेरी,

ये सर किसी और दर पे झुकेगा नहीं, मेरे मौला।

 

तू रहबर, तू ख़ुदा, तू ही नाख़ुदा इस जहान का,

मुफ़लिस और किसीके दर ना जायेगा, मेरे मौला,

तेरे देने के वादों के एतबार की ख़ातिर,

सजदे से सर कभी ना उठेगा मेरा, मेरे मौला।

 

मुझसे दर्द, अब किसी का देखा जाता नहीं,

हर लाइलाज मर्ज़ को शिफ़ा अताकर मौला,

बेबस, मासूमों की तड़प से तड़पता है दिल,

हर जंग का ख़ात्मा अमन से कर दे मौला।

 

जितना शुक्र करू मैं हर साँस में, वो कम है,

तेरी हर नवाज़िश का तहे-दिल से शुक्रिया, मौला,

मौहलत दे इस हयात में के, कमा लू और नेकियाँ,

ज़िम्मेदारियाँ मेरे हिस्से में बहुत हैं, मेरे मौला।

 

इन सूनी आँखों में तुझ से ही है शम-ए-उम्मीद,

ये दामन तेरे आगे ही फैलाया है, मेरे मौला,

क़त्ल-औ-ग़ारत, फितना-औ-शर है सारे आलम में,

अता कर मोमिन को, ताबूत-ए-सकीना या मौला।




 

 

 

 

 

 

Sunday, 29 October 2023

ये ज़िन्दगी

©इरम फातिमा 'आशी'

रुकी, थमी-सी, कभी तेज़ गाड़ी-सी दौड़ती,

सासें हैं चंद क़ैद सीने में मेरे, अजनबी-सी,

कभी काबू में, तो कभी बेकाबू-सी सासें,

इसके चलने रुकने का ही नाम है, ये ज़िन्दगी। 

 

फिर दुनिया में कुछ पाने की चाहत ही क्यों,

ये मोहब्बतें, ये हसरते, ये खाविशे ही क्यों,

सांसो के रुक जाने से, टूट जाता है सिलसिला,

अनदेखी सांसो की डोर-सी बंधी है, ये ज़िन्दगी।

 

क्या रिश्ते-नाते, क्या शौरत-दौलत, शीशे का महल है,

अपने सहूलत से मिलते हैं सब, हर रिश्ता धोका है,

जो सफ़र अकेले शुरू किया, वो अकेले ख़तम करना है,

वीरान सहरा में अकेले चलने का नाम है, ये ज़िन्दगी।

 

शायद सफ़र करती है अलग-अलग जिस्मो का,

एक जिस्म में सांस लेती, दूसरे को छोड़ती ज़िन्दगी,

दिल्लगी करती हैं ये सांसे हमारी, हमसे ही,

अपनी होकर भी ग़ैर-सी सासों के हाथ में, ये ज़िन्दगी।

 

ये सासें लेना कोई वहम तो नहीं सादियो से,

जिये जाना छलावा हो और हम समझते हैं ज़िंदगी,

मुमकिन है के दो सासों के बीच का कोई ख़्वाब है,

हयात-ए-सफ़र मानते हैं, मुमकिन वहम हो ज़िंदगी।