है मेरा लहू क़ातिल की आस्तीन पर,
और ज़ालिम ख़ुद को मक़तूल कहता है,
सियासी बैठे हुए हैं मज़हब का चोला पहने,
देखिये कैसे मेरे मुल्क़ की हवा में ज़हर घोला है।
करूँ क्या के अमन आये फिर से गुलिस्ता में,
किताबों तक में उन्होंने नफ़रतों का पाठ जोड़ा है,
शातिर हैं और वो जो सुकूँ की बात करते हैं,
इन्होंने ही जाने कितने लोगों के घरों को तोड़ा है।
तरक़ीबे लगाते हैं रोज़ नई, के दरारें रहे क़ायम,
मैं तन्हा हूँ के दारोग़ा और क़ानून सब उनका है,
ये दौर दंगों का ख़त्म हो तो, बात तरक़्क़ी की जाये,
नफ़रतों ने कहाँ किसी को ज़िंदा छोड़ा है।
बच्चे मासूम के पूछते हैं, सवाल रोज़ मुझ से,
ज़रा से उलझ जाने पर क्यों, साथी हमें आंतकवादी कहता है,
है मेरी जवाबदेही क्यों के जब कोई ग़लत काम हो,
मेरा मज़हब पर क्यों वो इल्ज़ाम सब लगता है।
सीचा है अपने सरज़मी को अपने, लहू से मैंने,
दफ़न हैं इसमें मेरे बुज़ुर्गो की तमाम क़ुर्बानियाँ,
हैं बुलंदियो की दास्ताने मेरी, हैं दोस्तियों के फ़साने भी मेरे,
दौर आयेगा मोहब्बत की बात होगी, वफ़ा पर सवाल जो उठता है।
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