Wednesday, 5 November 2014

Ek Khalish (Ghazal)






एक ख़लिश 
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बड़ी कश्मकश और खलाओं में भटक रही थी मेरी कुछ यू अल्हड़ सी ज़िंदगी,
कैसे तू दबे पाँव शामिल हो गया हमसाया बनकर के, आहट तक ना हुई।

मेरा वो यू चहचहाना हर बात पे हँसना और लापरवाही से ठहाके बरबस लगाना,
अलहडपन फलांग के जाने कब संजिदगी मुझ में हौले से, समा गई।

वो ख़ुद ही से देर तक गुफ़्तगू, कभी वो ख़याल में खो जाना जिस में हो सिर्फ तू,
कभी कुछ अधुरा-सा प्यार, कभी तुझ से जैसे ज़िंदगी मुक्मल हो गई।

अब गई मुझे भी फिक् करनी, वो बेवजह सोचो में तेरी ही डूबे रहना,
तेरा वो पल दो पल का मिलना और बिछड़ने की सोच के मेरा, ख़ोफज़दा हो जाना।

तू लापरवाह था, बेफ़िक्र ज़माने भर का, ईश्क भी मौज थी ज़िंदगी की, तेरे लिए, 
तूने समझा एक झोंका सर्द सा और वो आग थी उम्र भर के जलाने के लिए।

वो मज़े लेना बेतकल्लुफ़ हो कर मुझ से और मेरा सहम जाना, सोच कर बहुत कुछ,
तुझे जानती थी बख़ूब और अंजामे मुहब्बत भी, तू दुआ भी था और मेरा दर्द भी।

तेरा वो बढ़ जाना आगे, किसी और के लिए और छोड़ जाना मुझे बीच राहें,
वो मेरा भी बदल देना रास्ते तेरे हमेशा के लिए, दिल में दफन कर चाहें।

आज फ़सले हैं दरमियाँ, तू कही और मै कही, ज़िंदगी भी ख़ूब मशगूल है,
एक ख़लिश सी है हर तरफ़, एक लो है जो दोनो तरफ़ जल रही है।


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