Wednesday, 30 September 2015

फर्क है?



मुमकिन है के कुछ फ़र्क़ हो मेरे मज़हब और तेरे धर्म में,

पर इस फ़र्क़ का अहसास किसने कराया तुम्हें, ये सोचा तुमने?

ये ख़याल ज़हन में डालना, किसी की साज़िश का बीज तो नहीं, 

जो हौले से बढ़कर शक्सियत निगलने को तैयार हो तुम्हारी?

मैं देखती हुँ, मुझे तो दोनों तरफ़ के सिर्फ़ इंसान ही दिखते हैं,

जिस्म पर अलग से लिबास पहने, अंदर से एक जैसे ढले हुए,

अलग-अलग रस्म रिवाजों से बँधे, पर सूकून की तलाश में,

तुम्हें मुख़्तलिफ़ होके भी यह मुशाबियत नज़र नहीं आई कभी?

ज़ात, मज़हब, जगह, रंग के नाम के दायरों में बँटा शक्स,

ना तेरा है ना मेरा है, वो अपनी ही तंग सोच में क़ैदी है बेबस,

आ अपना दायरा वसी कर ले, हाथ खोल और ख़ुशियाँ भर लें,

वरना, क्या तुम अपाहिज सोच को तो कंधा नहीं दे रहे कहीं?

दहशतगर्द सिर्फ़ वो नहीं जो ख़ालिस जान लिया करते है,

इस फेहरिस्त में उन्हें भी शामिल करो जो नफ़रत फैलाते हैं,

फल, पेड़, सितारे, घर से ले कर ख़ुदा का दर तक बाँट देते हैं,

क्या तुम इन नफ़रतों का ज़हर विरासत में बढ़ने दोगे यू ही?

ज़रूरी है के गीता पढ़ो रामायण, बाइबिल और क़ुरान भी,

सब इंसानियत का सबक़ ही देती है पहले, फ़िरक़ापरस्ती नहीं,

इंसा में सिर्फ़ एक इंसा को देखा करो, भूल कर फ़र्क़ सभी,

इन्सानियत और मुहब्बत से बढ़कर क्या कोई मज़हब है कहीं?

©®Ashi

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