Monday, 11 January 2016

मैं ज़िंदा हुँ



 

करने दो मुझे शोर के मैं ज़िंदा हुँ, पुकारू रोशनियाँ पिघलाने को अंधेरा कुछ और, के मैं ज़िंदा हुँ।

मामूली सही पर एक हसती है मेरी, कराने दो अपने वजूद का अहसास मुझे, के मैं ज़िंदा हुँ।

 

दुनियादारी कब समझ आई है, जो अब समझ सकू, छोड़ दो मुझे मेरे हाल पर, के मैं ज़िंदा हुँ,

इन दिखावे की महफ़िलो से दूर कहीं, रहने दो मुझे मेरी तन्हाइयों के साथ, के मैं ज़िंदा हुँ।

 

घूँट-घूँट बहुत पी लिया संजीदगी का ज़हर, मुझ को भी रहने दो लापरवाही, के मैं ज़िंदा हुँ,

पत्थर बना दिया ख़ुद के अहसासों को ख़ुद में दफ़्न कर करके, ज़िदगी है बाकि अभी के मैं ज़िंदा हुँ।

 

जिसे किसी ने अपना बना कर छला हो, वो ग़ैरो से क्या कहे, आज करने दो गिला, के मैं ज़िंदा हुँ,

मुझे वक़्त ने मात दी, जो दौड़ा बेतहाशा, कह दो चले कभी मेरी चाल भी, के मैं ज़िंदा हुँ।

 

पेशानी पर लिख दो, के ज़िंदा लोगों में है शुमारी मेरी, ख़ामोश रह कर कह ना सका, के मैं ज़िंदा हुँ,

ज़र्रा-ज़र्रा दर्द से चीख़ उठेगा ग़र कह दी दस्तान-ए-सफ़र मैंने, भीड़ के क़ब्रिस्तान मे सही, पर मैं ज़िंदा हुँ।

1 comment:

  1. जिंदा हूं मैं.... बढ़िया... यूं ही लिखते रहिए!

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