ये रस्मो के धुँध कहाँ से निकलते हैं, ये जिस्मों के कारवाँ किस ओर चलते है,
हम से है ज़माना या ज़माने से हम, सवाल है कई जो सुबहो-शाम जलते हैं।
क़ैद है हर कोई इस जहाँ की बेड़ियों में, रूह लिए सभी रोज़ इस जिस्म में मरते हैं,
चल देंगे कहीं और सब छोड़ कर एक दिन, हादसे भला कब तलक टलते हैं।
वो जो अपना लगता है किसी और का हो जाएगा, बेवफ़ा हर मोड़ पर रहते हैं,
ज़िंदगी कट जाती है खुआईश में मनचाहे हमसफ़र की, साथ निभाने
वाले कहाँ मिलते हैं।
मुहब्बत की फ़िराक़ में रहने से क्या होगा हासिल, जब ख़ंजर लिए हमनवा फिरते हैं
,
है अगर ख़ामोश तबियत तो सिल लो होंठों को, कह ना दे कोई के हम शिकवा
करते हैं।
है अगर ख़ामोश तबियत तो सिल लो होंठों को, कह ना दे कोई के हम शिकवा
करते हैं।
आसमा से आगे तो होगा जहाँ ऐसा, चलेगी हुकूमत अपनी, बेदख़ल कर देंगे, जो हमें
खलते हैं।
तमन्नाओ का सिला हो जाएगा हमे भी फिर हासिल, मेरे खुआब कुछ ऐसी ताबीर में
ढलते हैं।
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