Tuesday, 31 January 2017

उनकी ख़ामोशी







चुप सी है ये फ़िज़ा, ये ज़मीं, ये आसमां, समंदर मे लहरें भी गुम सी लगतीं हैं,

चाँद भी छुप गया बादलों में, फूलों से तितलियाँ भी रूठी सी लगती हैं।


सब कायनात मौजूद है अपनी जगह, ज़िंदगी की रफ़्तार थमीं सी लगती है,

सितारों की रोशनी ज़रा मध्धम सी है, पत्तों से शबनम सूख गई लगती है।


वो बादलों की पनाहों में छुपता सूरज, चाँदनी अमावस में खोई सी लगती है,

अंदाज़ है सब बदला-सा, कुछ दिलचस्प ना रहा, अब हर चीज़ बद-मज़ा सी लगती है।


वो शक्स बन गया जीने की वजह, बिन उस के ज़िंदगी बेमायने सी लगती है,

एक दिन भी बात, गर ना हो उनसे, तो हर सू ख़ामोशी ग़ूजने सी लगती हैं।


यू तो हर रंग मे है ज़िंदगी मंज़ूर हमें, उसकी हर जियात्ती भी अपनी लगती है,

उनकी ख़ामोशी से, फ़िज़ा में बिखर जाता है संनाटा-सा और ये ज़िदगी बेनूर लगती है।

No comments:

Post a Comment