सोचतीं हूँ के रस्म-ए-मोहब्बत, कुछ यूँ भी निभाई जाए,
दूर से ही सही, तुमसे साथ निभाने का वादा ले लिया जाए।
ये
ख़्याल, ख़ुशग्वार है पर एक दिल में कसक भी है,
किसी को मोहब्बत का वास्ता देकर, क्यूँ मजबूर किया जाए।
मोहब्बत एक जज़्बा है, तो जिस्मों में एक रूह हो जाने का,
क्यू इस रूहानी रिश्ते को, निभाने की बंदिश बनाई जाए।
जाओ आज़ाद हो तुम, हर क़समो और वादो की ज़ंजीरो से,
दिल के रिश्ते किसी दबाव में नहीं, दिल से ही निभाये जाए।
बेलोस मोहब्बत हर गर्ज से परे है, तो वो एक इबादत है,
इबादत को, क्यू ना हर शर्त से परे यू ही रहने दिया जाए।
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