मोहब्बत, फूल, हुस्न, महक और नज़ाकत में ही ना बात हो मेरी,
नाराज़गी, अंगार और आतिश की बात में भी तो ज़िक्र करना मेरा।
मुझे ग़वारा नहीं वो रस्म, रिवाज, वो कानून, जो इंसानियत के ख़िलाफ़ हो,
धीरे से कहुगी पर गूंज जायेगी आवाज़ मेरी, दर्ज हो हर मुद्दे पर एतराज़ मेरा।
मेरे लिबास, खाने, बोलने, काम और मज़हब की हर बात, में बात क्यों?
मैं कोई चीज़, सामान या जानवर नहीं हूँ, इंसानो में है शुमार मेरा।
निभाये हैं मैंने रिश्ते, मुझ से है वजूद तुम्हारा, तुम में से मैं भी एक हूँ,
मान देने का ढोंग करते हो फिर, हर बार गालियो में क्यों वजूद मेरा?
मैं मानती हूँ के तुम और मैं जुदा हैं, पर मुकम्मल करते हैं एक दूसरे को,
तुमसे बढ़ कर नहीं मांगा मैंने, वो दिया जाये मुझे सब, जो हक़ है मेरा।
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