Wednesday, 11 February 2015

अनकही






तुम मुसाफ़िर अपनी राहों के, हम मुसाफ़िर अपनी राहों के,

कुछ देर के, हमसफ़र बन गए इतेफाकन, चलते चलते।


वो तुम्हारा  बेबाक़ इज़हार, वो मेरा ख़ामोशी में ही इकरार,

वो तेरी हर ज़िद बुलाने की, वो मेरी इंतिहा रूठ जाने की।


कुछ  देर तो हम ठहरे, टूटे और सम्भले भी, मुड़ कर भी देखा तुझे, 

हसरत से के तू थाम ले, पर तेरी खुआईशे थी जुदा और रास्ते भी। 


ये कैसी सदा है, जो तूने दी ही नही, ये कैसी आहट है जो हुई नही,

ये इंतेज़ार तेरा कुछ मुझे और क्यों तुझ को मेरा है।


कुछ बातें हैं अनकही जो कहनी हैं, कुछ अनछुए अहसास हैं दरमियाँ,

ज़िंदगी से कभी शिकवा ना किया हमने, पर ख़ुद से बड़ी शिकायतें हैं।


आओ के एक मुलाक़ात कर ले, एक पल में ही जी लें और मर लें,

मर कर ख़ुदा से पूछेंगे ज़रूर, वो राहें क्यों मिलाई, जिन में थी जुदाई।


यू तो ज़िंदगी में ख़ुश हो तुम भी, शायद ख़ुश हैं हम भी,

भीड़ में ये फिर सन्नाटा कैसा, वक़्त क्यों ये ठहरा-सा है।


सुन सको तो सुन लो मेरी ख़ामोशी को, इक छुपा सा दर्द है,

ज़ख़्म है मेरी नाकाम मुहब्बत का जो अदंर ही अंदर रिसता है।


मै एक मुसाफ़िर हुँ मंज़िल नही कोई जिसकी, चल दूँगी नए सफ़र पे,

तू तब भी ना रोक सका, तू आज भी बेबस-सा ठहरा है।




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