मेरी अवारगी ये कहाँ ले आई, उल्फ़त से खाकर ठोकर, कहीं पनाह नहीं पाई,
उड़ने की खुआईश इस क़दर सवार थी, बुलंदियों से गिर के, ज़मीं ना पाई।
दिल हो गया मायूस बिछड़ कर उससे, मुहब्बत करके भी, हिस्से जो आई जुदाई,
मै भटकता रहा खलाओं में इस तरह, के दुनिया की भीड़ में भी, तंहाई ही पाई।
दिल की गहराइयों में अंधेरा है इतना, रोशनी ना मिली, जितनी भी लौ जलाई,
क्या खोया और पाया इसका हिसाब करेंगे ज़िंदगी, कभी जो तुझ से फ़ुर्सत पाई।
ये ख़ामोश तड़प, बेबसी और मेरा दिवानापन, किसने दी सदा, जो दी सुनाई,
सोज़-ए-दिल कुछ तो ख़तावार तू ज़रूर होगा, जो हमने यू जीने की सज़ा पाई।