Sunday, 17 May 2015

मैं खुद से जुदा




कुछ यू ही बेवजह नही होता दुनिया में, वो लम्हा तय होगा क़ुदरत की तरफ़ से, 

तेरा वो छम से जाना सामने, मेरा वो ठिटक कर रह जाना, हो के हैंरा-सा।


नाज़ुक तितली-सा वो हसीन लम्हा, ठहर ही गया होगा, रूबरू देखकर हमें,

हम-तुम मिले जिसमें, कुछ बातें फ़िज़ूल की, और महसूस करना मुहब्बत-सा।


मुमकिन है के हसीन हो तुम पहले से ही और मैं दिल फैंक, कुछ मस्तमौला,

पर मुहब्बत के बाद तुम और भी दिलकश लगी और मैं कुछ हो गया संजीदा-सा।


कुछ अपना सा खुद से ही बग़ावत कर बैठा, जो धड़कता था मेरे सीने में अपने,

ज़हन था की सिर्फ तुम्हारे ही खयालो में की गलियों में भटकता और गुमशुदा-सा।


सब कुछ ही दुनिया में मिल जाता तो खुआोईश--जन्नत ख़ाक किया करते लोग,

जन्नत के बदले माँग लूँगा तुझे, तू मुझ से जुदा, मैं खुद से जुदा, ज़िंदगी से ही ख़फ़ा-सा।




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