कुछ कसक सी उधर भी उठी ज़रूर होगी, यू सोज़-ए-दिल खमाखा तो नहीं होता,
वो भी बेक़रार, बेचैन ज़रूर होगे, ये दिल उनसे ख़फ़ा और बेज़ार यू नहीं होता।
वो अल्फ़ाज़ ही है जो दिखा देते हैं जन्नत, उनका गुफ़्तगू में वजूद, बेवजह नहीं होता,
अब ये उस पर है के मुहब्बत बरसाये या नशतर, हमे दर्द अब ज्यादा नही होता।
कुछ फितरतन वो लापरवाह है ज़माने भर से, मुझ ही से सिर्फ़ उलझना नही होता,
मेरा शिकवा करना नामुमकिन-सा है, गर उसने नाराज़गी का, हक़ ना दिया होता।
राते ख़ूबसूरत और दिलकश ना हुआ करती अगर उनमें चाँद का चमकना ना होता,
ऐ दिल-ए-ग़मज़दा,रूठने का मज़ा ख़ाक हो जाता गर उसमें, मनाना नही होता।
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