Thursday, 8 October 2015

दो हमसफ़र





आँखो की बंदिशो में बँधे दो बाशिंदे, फ़ुरसत के लम्हे चुराके, ज़माने भर से,


एक दूसरे के क़रीब, गुमशुदा खुद में, वहम ही सही, जी रहे लम्हे हसीन-से।



ये परिंदे जुदा, कुछ ख़फ़ा रस्मों से, तलाशते अपने हिस्से का असमां और ज़मीं,

ख़ुशियाे के पायदान से लुढ़कते-सम्भालते, ग़मों की बारिश में फड़फड़ाते, भीगे से।


कभी सम्भालते हैं एक दूसरे को, तो कभी बन जाते वजह मुस्कुराने की,

बेमक़सद, बेवजह, बेमायनी, बेवफ़ा ज़िंदगी के फ़लसफ़ो में उलझे से।


वक़त के मारे, ज़माने से हारे, अपने वजूद की तलाश में इम्तिहान से गुज़रते,

दिल हुई ज़ुबा, छूटे लफ़्जो के कारवाँ, हक़ीक़त से परे, बँधे मुहब्बत से।


हौले से बढ़ती ज़िंदगी, रेत से सरकते पल मठुठी में रोकने की कोशिश में,

वफ़ाओ से लबरेज़, मुख़तलिफ़ राहों पर सफ़र करते दो हमसफ़र से।

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