Monday, 21 December 2015

जज़्बातों की वसीहत





ख़ामोशी सी पसरी है, बेचैनियाँ और बेनूर सा है हर तरफ़ ही,
वो मसरूफ हैं इस क़दर, या के ये मौसम ही कुछ सर्द है।

ये बेताबियाँ है इस तरह, के दिल बेज़ार सा हुआ जाता है,
यू तो लबों पर मुस्कुराहट है मुसलसल लेकिन कहीं दर्द है।

हवाओं से कुछ कहते हुए डर है, कही राज़ ना हो जाए बेपरदा,
वो धूप सेकते होगे गरम सी, यहाँ तो तंहाईयो की ठंडी गर्द है।

कोई बताए के माजरा क्या है, मैं ख़ाली सा हुँ, या ये है सन्नाटा मुझ में ही,
कोई हादसा हुँ, या के किसी की बेवफ़ाई का आलम, अब मुझ में दर्ज है।

मालिकाना हक़ दे दिया, लिख दी अपने जज़्बातों की वसीहत उसके नाम,
ख़ाली हाथ वापसी होगी के साँसें साथ हैं छोड़ती, और जिस्म भी ज़र्द है।










No comments:

Post a Comment