Sunday, 12 June 2016

मुहब्बत की मंज़िल




एक कसक सी है के, कुछ इस तरह गुज़रे ये ज़िदगी के मुक़ाम--मज़िल पा जाए,

सिला मिले मुझे भी मेरे सब्र का, आँखे खोलूँ और खुआब हक़ीक़त मे ढल जाये।


वक़्त का पहिया पीछे घूमे तरह के, खो गया जो मुझ वो वापिस मिल जाए,

मेरा अनकहा दर्द मुझ से निजात पा जाए और मेरे सारे ग़म ख़ुशी में ढल जाये।


रातों के पहर मैंने गुज़ारे हैं जाग कर, जिसमें फ़ना हो जाता है अंधेरा, तू वो चाँद बन जाए,

फूलो में ख़ुशबू और समंदर में लहरें है जैसे, हमारा साथ भी कुछ इस तरह हो जाये।


हसरतें हैं की वक़त के साथ और जवाँ होती है, वजूद मेरा हर बंदिशों से आज़ाद हो जाए,

दास्ताँ मेरी जो है बेदम है बिछड़ कर तुझ से, मिले तू तो मुकम्मल हो जाये।


तेरी खुआईशे हो सब मुझ से जुड़ी, कुछ तुझे पाने की तलब, मुझ में भी ख़ुदगर्ज़ हो जाए,

क़दम यू बढ़ा मेरी तरफ़ के, ये फ़सले तेरे मेरे दरमियाँ के, मुहब्बत की मंज़िल पा जाये।






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