Tuesday, 10 October 2017

क्या फ़र्क़ है?




क्या  तुम उसे भी यू ही लिपट जाते हो बेसाख़्ता, जब बहुत दिन बाद कहीं बाहर से आते हो,

जैसे कोई मुसाफ़िर लौटा हो अपनी मंज़िल पर, और पनाह पा गया हो किसी की बाँहों में।


क्या तुम उसके साथ होते हो तो, उसका माथा भी रह-रहकर यू चूमते रहते हो, बात बे बात पर,

जैसे दिल से उमड़ते जज़्बात तुम्हारे लबों के ज़रिये, उस की ख़ुशनुमा तक़दीर बन गए हों।


क्या उसे भी पता है के तुम ज़रा सी भी झल्लाहट होने पर तुनक कर नाख़ून ले लेते हो मुँह में,

जैसे के ये हल हो सब ही मुश्किलों का और झिड़कने से सम्भल जाते हो मासूमियत से।


क्या वो भी सुनती है तुम्हारी छोटी-बड़ी सब, दिल की बातें और बता देती है के तुम कहाँ ग़लत हो,

जैसे कोई बच्चे की सुनता है,उसे भी यू ही कहते हो चिढकर, के हाँ मैं दुनिया में सबसे बुरा हुँ।


क्या उसकी निगाहों को अपनी निगाहों में थाम कर, हौले से बाँहों में भर लिया करते हो,

जैसे के अब अल्फ़ाज़ ही ख़त्म हो गए हो गोया और अपनी रूहानी मुहब्बत यू ही जतानी है।


क्या हर बार कहीं जाने पर उससे भी बिछडते वक़त, यू ही बेबस परेशान से हो जाते हो,

जैसे ख़ौफ़ हो, के दोबारा ना मिल सके एक दूसरे से तो ज़िंदा कैसे रह सकेंगे, यू जुदा होके।


क्या कुछ अलग अहसास हैं मुझ से और उससे तम्हे, या कोई फ़र्क़ नहीं ज़्यादा हम दोनों में,

जैसे मैं एक मुहब्बत थी तब की और अब अपनी नई मुहब्बत को पा लिया तुमने उसमें।


क्या जवाब है तुम्हारे पास मेरे इन सवालों का, जो मुझे बरबस परेशां किया करते हैं,

जैसे तुझसे बिछड़ने की मेरी तड़प आज भी, तेरी तलबगार होके सूकून ढूँढती है तुझ में ही।


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