कोहरे की
धुँध ने रात को और गहरा कर दिया था। ख़ूब भीड़-भाड वाला रेलवे स्टेशन शाम के वक़त
से ही सूना सा लग रहा था। मै अपनी ट्राली खिंचते हुए सूचना खिड़की पर पहुँचा। वहाँ
कोई नज़र नहीं आया, अंदर झाँका तो दो आदमी अँगीठी पर
हाथ ताप रहे थे।
‘भाई! ये झाँसी जाने वाली ट्रेन कब
आएगी?’ मैंने पूछा।
‘कौन...? अच्छा... झाँसी जाना है... सुबहा
आना भैया... ट्रेन तो स्टेशन पर ही खड़ी है पर सुबह १० बजे से पहले नहीं जाएगी।’ उसने वही से बैठे-बैठे कहा।
‘अरे सुबह...?’ मैंने हैरत से पूछा।
‘जी... कोहरा देख रहे हो भैया, इसके छँटने पर ही अगले दिन ट्रेन
जाएगी। कहीं दूर से आए हो तो वेटिंग रूम मे चाय-वाय ले कर किसी तरह रात काट लो’ उसने हाथ के इशारे से रास्ता दिखा
दिया।
‘शुक्रिया भाई’ बेबसी से उसे देखा और वेटिंग रूम का
रूख किया।
वहाँ पहुँच
कर देखा वेटिंग हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था। ज़्यादा तर आदमी ही थे, मुश्किल से एक-आद फैमली नज़र आ रही
थी। मैंने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई कही बैठने की जगह ख़ाली नहीं थी, मै अपनी ट्राली से लग कर कोने में
खड़ा हो गया। घड़ी पर नज़र डाली ते देखा अभी सिर्फ़ ७:३० ही हुए थे।
‘उफ़! ये सारी रात यू, कैसे कटेगी...’ मैं बड़बड़ाया।
लगभग दूसरे
कोने पर एक जोड़ी निगाहें मुझे एकटक देख रहीं थी। मैंने गौंर से देखा तो चेहरा कुछ
जाना पहचाना-सा लगा। मैंने देखा वो शायद अकेली थी, इतनी सर्द शाम में शॉल मे लिपटी हुई कोने में खड़ी थी।आस-पास के लोग उसे
कुछ-कुछ कह रहे थे और वो कुछ झल्लाई सी थी। पतली, लम्बी, गोरा रंग....
‘महक...?’ मैंने हौले से होंठ हिलाये।
‘अमन...!’ उसने मेरे हिलते होंठों को दूर से
समझ लिया और बता भी दिया के वो भी मुझे पहचान गई है।
‘कोई नज़र नहीं आ रहा आपके साथ...
कहाँ जा रही हो?’ मैंने उसके पास जाकर पूछा।
‘हू... अकेली ही.... दिल्ली, पापा के यहाँ...!’ उसने हौले से कहा।
‘तो आपकी ट्रेन भी लेट है?’ मैंने पुछा।
‘जी... कल सुबह ११ के बाद है... समझ
नहीं आ रहा इतना वक़त कैसे कटेगा, यहाँ तो बैठने तक की जगह नहीं है और अकेली देखकर छेड़छाड़ और हो रही है...’ उसने उलझते हुए कहा।
‘मै पता करता हूँ आस-पास कोई होटल है
तो दो रूम ले लेते हैं, सुबह में आ जाएँगे... ताकि आराम कर
सकें। अगर आप को कोई एतराज़ ना हो तो...’ मैंने झिझकते हुए कहा।
‘जी... ये ही सही रहेगा... मै सुबह
से यहाँ हुँ और बहुत थक गई हूँ...’ महक ने हामी भरी।
बाहर जा कर
ज़रा पूछताछ करने पर पता चला के क़रीब ही एक होटल है और मैं सामान और महक के साथ
वहाँ चला आया। बहुत कहने पर एक ही रूम मिल सका, मैंने देखा वो परेशान और बहुत थकी हुई लग रही थी।
‘महक... किसी तरह एक ही रूम मिल सका
है... आप चाहो तो रूक सकती हो, मैं वापिस....’ मैं बात पूरी नहीं कर सका।
‘हम रूम शेयर कर लेंगे। तुम बैंड ले
लेना, मै वही सोफ़े पर आराम कर लूँगी। रात
की ही तो बात है’ उसने कहा।
‘ठीक है... जैसा तुम कहो’ मैंने हामी भरी और होटल का रूम बुक
कर दिया।
कुछ ही देर
में हम रूम में शिफ़्ट हो गए।
‘5 साल बाद मुलाक़ात हुई है....’ मैंने उसे सोफ़े की तरफ़ बैठने का
इशारा करते हुए कहा।
‘नहीं...... 6 साल, चार महीने और 3 तीन के बाद...’ वो पूरे यक़ीन से मेरी आँखो में
देखती हुई बोली, और मैं हैरान रह गया।
मै दोनों का
सामान कोने में सैट कर के चाय का ऑडर दे चुका था। कमरे में एक अजीब-सा सन्नाटा था, हम दोनों इतने अरसे के बाद मिले थे
के समझ नहीं आ रहा था के किस तरह बात शुरू की जाए।
‘ बीवी बच्चे कैसे है तुम्हारे....’ महक ने ख़ामोशी तोड़ते हुए पूछा।
‘बीवी है... वहीं लंदन में ही है....’ मैंने सामने की कुर्सी पर बैठते हुए
कहा।
‘तुम्हारी शादी कब हुई.... कोई
बच्चा...?’ मैंने झिझकते हुए पूछा।
‘ढाई साल पहले... नहीं फ़िलहाल कोई
बच्चा नहीं है’ उसने सपाट लफ़्ज़ों मे जवाब दिया।
‘यहाँ कैसे आना हुआ... तुम तो लंदन
शिफ़्ट हो गए थे और सुना था ग्रिन कार्ड के लिए वही शादी कर.... वही बीवी है या और
किसी से.... बाद में....’ उसकी बात में तल्ख़ी सी थी।
‘वहीं है... गुजराती परिवार से...’ मैंने जवाब दिया।
तब तक चाय आ
गई थी। मैंने सामने की टेबल पर कप रख दिए और चाय का कप उठाने को कहा। महक ने कप
उठाया तो मैंने देखा उसकी गरदन पर गहरे नीले निशान साफ़ नज़र आ रहे थे।
‘ये कैसे निशान हैं महक?’ मैंने चौक कर पूछा।
‘यू ही पैर फिसल गया था’ कहते हुए उसने शॉल से सही से अपनी
गर्दन को ढकने की करने की कोशिश करने लगी। उस कोशिश मे उसके बाज़ू पर भी काफ़ी
निशान से दिखे और मै कुछ परेशान हो गया।
कॉलेज के
टाईम, पतले छरहरे जिस्म की लम्बी सी लड़की, घने काले बाल जो अकसर खोल कर रखती
थी, लेटेस्ट फ़ैशन के कपड़ों, अपनी शक्सियत और अंदाज़ की वजह से
भीड से अलग दिखती थी। आज उसके बाल पतली सी चोटी में सिमटे थे और सूती सूट में, कड़कती ठंड में यू शॉल लपेटे हुए
थी। मुझे उसके हालात कुछ सही नहीं लगे, मैं ख़ामोशी मे डूबने सा लगा।
‘अमन... क्या सोच रहे हो...’ उसने धीरे से पूछा।
‘यही के... झूठ बोलती हो तुम... गरदन
पर अंगुलियों के निशान, हाथो-पैरों पर ये ज़ख़्म... तुमसे
ज़्यादा सच बोलते हैं...’ मैंने दो टूक जवाब दिया।
उसने निगाहें
नीची कर ली, शायद इस डर से के कही दर्द आँसू बन
कर ना छलक जाए। फिर क्या कहती वो मुझे मै अब उसका था ही कौन? जब कॉलेज में साथ पढ़ाते हुए उससे
दोस्ती हुई तो वो जज़्बात कब प्यार मे बदल गए पता नहीं चला। लेकिन मेरे उस प्यार
की गहराई, मेरे खाआबो की ऊँचाई से कम थी इसलिए
जब डिग्री मिलने के बाद, लंदन मेरे मामा ने बुलाया तो अपने
प्यार को यू ही अधुरा छोड़ कर आगे बढ़ गया।
जानता था, महक बहुत
परेशान हुई होगी, अपने प्यार पर यक़ीन करके बहुत
इंतिजार भी किया होगा, लोगों के ताने भी सुने होंगे और
मज़ाक़ भी सहा होगा पर मै ख़ुदगर्ज़ होकर आगे बढ गया और पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
ऐसा नहीं की
दूर जाकर कभी महक की याद नहीं आई, महक से मेरे जज़्बात और रूह जुड़ी थी, जब कभी भी फ़ुरसत से बैठता तो उसकी बातों और यादों में खो जाता।
ये तो खुआब
मे भी नहीं सोचा था के कभी यू अचानक मुलाक़ात होगी और हम एक छत के नीचे बैठे
होंगे।
‘तुम्हारा यहाँ कैसे आना हुआ?’ महक ने धीरे से पूछा।
‘कुछ प्रोपर्टी का काम था तो दस दिन
के लिए....। लेकिन तुम ये बताओ के तुम्हारे जिस्म पर ये निशान कैसे हैं? हाथ उठाता है वो तुम पर?’ मैंने तैश में पूछा।
‘अमन.... रैस्ट कर लो... बहुत बातें
हो गई...’ उसने बात बदलते हुए कहा।
अब मेरा सब्र
जवाब दे चुका था, अंदर की पुरानी फ़्रस्ट्रेशन सिर पर
सवार हो गई, मैंने उसकी शाल एक तरफ़ फेंक दी।
‘ये सर से पैर तक कैसे निशान हैं तुम
पर... बताती क्यों नहीं... क्या छुपा रही हो....’ मुझे ग़ुस्से से कहा।
वो मेरे इस
अंदाज़ से हैरान-परेशान सी हो गई।
‘कौ... कौन होते हो तुम ये सब पूछने
वाले... तुमने कभी सोचा मेरे लिए के मुझे ऐसे छोड़ जाने पर मेरा क्या होगा? मेरे लिए तब नहीं सोचा तो अब क्यों
फ़िकर दिखा रहे हो? कुछ भी हो मेरे साथ... तुम्हें
क्या..? हो कौन तुम कुछ पूछने वाले...?’महक ने सकपका कर कहा।
‘मैं मानता हुँ मैंने तुम्हारे लिए
तब कुछ नहीं किया पर इसका मतलब ये नहीं के, ये देखकर भी सब अनदेखा कर दूँ... बोलो ये सब क्या है...?’ मैंने क़रीब जाकर उसके कंधे पर हाथ
रखकर उसका चेहरा हाथ से उठाते हुए पूछा।
अब उसके अंदर
का बरसो का सैलाब अपने बँधो को तोड़कर आँसुओं के रूप में बह निकला। धीरे से क़रीब
आकर वो सीने से लग गई और रोती चली गई। मैं पत्थर सा होकर यू ही खड़ा रह गया, ना कोई सवाल करते बना ना किसी जवाब
सुनने की हिम्मत ला सका। पता नहीं क्या-क्या बर्दाश्त करती होगी। मैने धीरे से
बैंड पर उसे लिटा दिया और उसका सर सहलाता रहा। और वो रोती रही। उसका एक-एक आँसू
उसके अंदर के दर्द को बया कर रहा था और मुझ से जो अनगिनत शिकायतें थी, वो सब महसूस हो रही थी।
इस एक दूसरे
के दर्द के अहसास ने कब इतना क़रीब ले आया के पता ही नहीं चला के कब पुरानी
मुहब्बत हावी हो गई और हम सारे दायरे भूल कर एक होकर, एक दूसरे की बाँहों में सो गए। सारे
अहसास, गिले शिकवे और दर्द सब ख़त्म से हो
गए।
खिड़की के
परदे से चमकती धूप से सुबह ने दस्तक दी। मैंने देखा महक एक मासूम बच्चे सी मेरे
बाज़ू पर बेख़बर सो रही थी। मैने धीरे से उसका माथा चूमा तो वो बंद आँखो से ही
मुस्कुरा दी।
‘फिर चले जाओगे... छोड़ कर...’ वो धीरे से बोली।
‘नहीं... अब की बार लेकर जाऊँगा...
छोड़ो सब और चलो मेरे साथ... जान ले लूँगा उसकी जिसने भी तुम्हें सताया...’ मैने कहा।
‘तब मेरी परवाह नहीं की... अब अपने
परिवार की परवाह नहीं... क्यों? ऐसे ही रहोगे क्या हमेशा, ग़ैर ज़िम्मेदार?’ महक मुस्कुरा कर बोली।
‘तो...? तुम्हें मरने को छोड़ जाऊँ? जितना ज़ुल्म करने वाला ग़लत होता
है उतना ही सहने वाला भी... क्यों पिटती हो तुम...’ मैने तड़प कर कहा।
‘अपनी कहते थे ना तुम मुझे? जब तुमने मेरी परवाह नहीं की तो मैं
क्यों करू अपनी परवाह... जाओ तुम... मै यू ही सही...’ उसने चंद लफ़्ज़ों में बरसो का
ग़ुस्सा निकाल दिया।
‘चलो मेरे साथ... पुरानी बातें
छोड़ो...’ मैने उठते हुए कहा।
‘पापा की तबियत ठीक नहीं है, उनके पास जा रही हुँ... तुमसे कोई
शिकवा नहीं, अपनी ज़िदगी के मसले सम्भालो... सब
ठीक हो जाएगा मेरे ज़िदगी में भी....’ महक ने उठकर तैयार होते हुए कहा।
‘महक, अगर तुम पर किसी ने आज के बाद हाथ उठाया तो देख लेना मुझ से बुरा कोई नहीं
होगा...जहाँ भी होंगी वहाँ से अपने साथ ले जाऊँगा। तू मेरी अमानत है। आज के बाद
अपना ख़याल, मेरे लिये रखना... समझीं...!’ मैने हक़ जताते हुए कहा।
‘हू...’ उसने सामने सोफ़े पर बैठते हुए हामी
भरी।
‘तुम्हारा मोबाईल नम्बर दो और ईमेल
एडरस भी नोट करो, अब से टच में रहना...’ मैंने कहा।
उसने मेरा
नम्बर और ईमेल नोट कर लिया पर अपना इस शर्त पर दिया के मैं उसे वक़्त बे वक़्त कॉल
नहीं करूँगा।
मैंने रूम पर
नाश्ता मँगवा लिया और फिर चैकआउट का वक़्त हो गया। अपना सामान ले कर हम रेलवे
स्टेशन पहुँचे। महक की ट्रेन जाने को तैयार थी, मैंने उसे भारी मन से ट्रेन में बैठा दिया और उसने भी भीगी पलकों से हाथ हिलाते
हुए बॉय कर दिया। कुछ ही देर में मेरी ट्रेन भी आ गई और मैं अपनी मंज़िल पर चल
दिया।
पर अब कुछ भी
पहले जैसा नहीं था।मैं अब तक महक को छोड़ने के जिस दर्द से गुज़रता था, वो दर्द अब तड़प बन गया था, उसकी तकलीफ़ देखकर। महक ने पहुँचने
के बाद एक बार इतला की और एक फ़ोन मेरे लंदन जाने वाले दिन किया। हम दोनों ने अपनी
ज़िंदगी का कोई ख़ास बात तो शेयर नहीं की, पर एक अजीब से अहसास की गहराई महसूस की जैसे एक दूसरा की ज़िदगी का ख़ालीपन
समझ लिया हो और एक दूसरे के इतना क़रीब आकर रूह को सुकून मिल गया हो।
लंदन वापिस आ
तो गया था पर दिल वही महक के पास रह गया था, काम में जैसे वक़्त मिलता दिल महक की यादों में खो जाता। ग्रीन कार्ड के लिये
की हुई शादी काग़ज़ की फरमालिटी की सी होती है, ख़ुद की बीवी से कई-कई दिन तक मुलाक़ात नहीं होती थी। उसकी नौकरी और मूड के
हिसाब से ही मिलना मुमकिन हो पाता था।
दिन, हफ़्ते और हफ़्ते महीने में बदल गए, एक बार महक ने कॉल आया मैं अपने
आफिस में था।
‘हैलो अमन... कैसे हो?’ महक की आवाज़ अंदर तक ठंडक सी महसूस
हुई।
‘मैं ठीक हुँ... तुम कहो... सब ठीक
है ना?’ मैंने पूछा।
‘सब ठीक है, कुछ बताना था आपको... वो मैं....’ वो हिचक कर रूक गई।
‘बोलो...’ मैंने बेचैनी से पूछा।
‘उस रात जब हम...’ वो फिर रूक गई।
‘बोलो तो सही....तुम कहाँ हो?’ मैंने परेशान होकर कहा।
‘अमन, मैं प्रेगनेंट हुँ और तब से दिल्ली में ही हुँ...’ उसने बात पूरी की।
‘ओह.... अब....?’ मैंने पूछा।
‘अब क्या... ये एक ज़िदगी है और मैं
इसे दुनिया में लाना चाहती हुँ। अलग हालात में ही सही पर शायद ये तुम्हारे मेरे
प्यार और मुलाक़ात की निशानी है...’ उसने चंद लफ़्ज़ों में दुनियादारी से परे अपना फ़ैसला सुना दिया और मैं फिर
बेबस हो गया।
‘मैं आता हुँ महक तुमसे मिलने... हम
बैठ कर बात करते है के क्या करना है... तुम दिल से फ़ैसले लेती हो, दिमाग़ से नहीं सोचती...’ मैंने बात सम्भालते हुए कहा।
‘दिमाग़ से तुम जीयो अपनी ज़िदगी, मेरी यू दिल ही के फ़सलो से ही
सही... तुम्हें फ़िकर करने की कोई ज़रूरत नहीं है, मैं तुमको कभी किसी मुश्किल में नहीं डालूँगी। ये मेरी ज़िदगी है, मेरी मुहब्बत है और मेरी मुहब्बत की
निशानी...’ उसने सपाट लफ़्ज़ों मे कहा।
‘मेरी मुहब्बत... मुहब्बत की निशानी? क्या मेरे कोई जज़्बात नहीं हैं
तुम्हारे लिए? मैंने भी तुमसे बराबर प्यार किया
है। वो मुलाक़ात.... मैने कोई अय्याशी नहीं की थी, वो मेरा प्यार था। हाँ मै मानता हुँ के मुझे कुछ....। पर जो भी हो मै ये कैसे
बर्दाश्त करूँगा के मेरा बच्चा कहीं और.... तुम समझती क्यों नहीं, हम सूकून से बात करते है... फिर कुछ
सोचेंगे...’ मैंने कहा।
‘अमन... फ़ैसला मैं ले चुकी हुँ...
मैंने जब कभी अपना वजूद तुम पर नहीं थोपा, तो ये बच्चा भी कभी तुम्हारे लिए किसी मुश्किल की वजह नहीं बनेगा। चलो बाद में
बात करती हुँ, बॉय...’ और फ़ोन काट दिया।
‘सुनो... मेरी बात तो मानो... महक...
महक...’ फ़ोन कट चुका था और मैं बेचैन
परेशान सा हो उठा।
क्या करूँ
क्या ना करूँ कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। मेरी वजह से महक को किन किन मुश्किलों का
सामना करना पड़ सकता है ये बात और तड़प बढ़ा रही थी। मैंने कई बार महक को कॉल करने
की कोशिश की पर कॉल नहीं लगा। मेरा महक से बात करना उसके रहमोकरम पर ही था। इस
जज़्बाती लड़की ने मुझे भी अंदर से कमज़ोर कर दिया था।
एक साल का
वक़त यू ही गुज़रता गया पर महक का कोई ख़बर नहीं आई। एक दिन ईमेल चैक करते हुए
चौंक गया, एक बच्चे के फ़ोटो के साथ लिखा था-
जूनियर अमन मुबारक...।
मैं उस
ख़ूबसूरत से बच्चे की तस्वीर देखता ही रह गया, मैंने फ़ौरन जवाब मेल किया- महक
कैसे हो? कहाँ हो? तुमसे कैसे बात हो सकती है?
मेरी क़िस्मत
भी मुझ से अजीब खेल खेल रही थी, उस पर ये महक की आँखमिचौली से झल्ला गया था। सोच लिया था के महक का फ़ोन आया
या मुलाक़ात हुई तो बहुत सुनाऊँगा उसे, वो इतनी दूर से मुझे यू कठपुतली की तरह नहीं खेल सकती। मेरे बच्चे और उस पर
मेरा पूरा हक़ है और मै उसे ये बताना चाहता था।
मेरा दिल्ली
जाने का प्रोग्राम बन रहा था और इस बार हमेशा के लिए। अपनी बीवी से जो काग़ज़ का
रिश्ता था वो काग़ज़ पर दम तोड़ गया और वो मुझे और तंहा करके चली गई। मैं अब अपने
वतन अपने घर लौट जाना चाहता था। मैं शिद्दत से महक के फ़ोन का इंतेजार कर रहा था।
कॉल आने पर मैंने अपने दिल्ली आने की बात बता दी और मिलने का तय किया।
दिल्ली पहुँच
कर मैंने महक को कॉल किया, उसने अपने घर के पते पर आने को कहा।
मैं उसके घर पहुँच गया। दरवाज़ा उसने ही खोला और कुर्सी पर बैठने का इशारा किया।
पुराने बने
हुए मकान मे जैसे बरसो से सफ़ेदी नहीं हुई थी, चीज़ें भी पुरानी और बेतरतीबी से रखी थी। मैं इधर-उधर देख ही रहा था के वो
पानी ले कर आ गई।
‘तुम्हारे पापा की तबीयत....’ मैंने बात शुरू करने की कोशिश की।
‘वो... नहीं रहे...’ उसने मायूस सी आवाज़ मे कहा।
‘ओह... अई इम सॉरी... तुमने बताया भी
नहीं..’ मैंने कहा।
‘मेरे आने के एक महीने बाद ही....’ उसने कहा।
‘फिर... तुम अपने घर नहीं गई... मेरा
मतलब तुम्हें तुम्हारी ससुराल से कोई लेने नहीं आया....’ मैंने चैंक कर कहा।
‘उस कमज़ोर रिश्ते की बुनियाद उसी
दिन गिर गई थी जब उसने मेरे साथ बदसुलूकी और मारपीट शुरू कर दी थी। तुमने कहा था
ना के ज़ुल्म करने वाला और सहने वाला दोनों ग़लत होते है.... मैंने दिल्ली पहुँच
कर उसे डीवोस के पेपर भेजकर अपनी ग़लती सुधार ली।’ उसने इक आह लेते हुए बात पूरी की।
‘तब से अकेले....?’ मैंने चैक कर पूछा।
‘हू... अकेली नहीं थी... तुम्हारी
यादें थी और....’ वो बात अधुरी छोड़ कर अंदर चली गई।
थोड़ी देर में एक बच्चे की अँगली पकड़ कर लेकर आई। गोरा, गोलू सा, प्यारा बच्चा डगमग क़दमों से मेरी
तरफ़ बढ़ा। मुझे देख कर हँसा तो दोनों गालों में बिलकुल मेरे जैसे गहरे भँवर पड़
गए। वही भूरी आँखे और भूरे बाल, ऐसा लगा जैसे मैं अपने बचपन की तस्वीर देख रहा हुँ। बस दोनों हाथ खोल कर उसे
चिपटा लिया और प्यार करता रहा।
महक के आँखो
से आँसुओं छलकने लगे। एक हाथ उसकी तरफ़ बढ़ाकर उसे भी बाँहों में ले लिया। अब मेरी
आँखे भी नम हो चुकी थी।
‘कितनी ख़ुदगर्ज़ हो तुम महक... , मुझे अपना नहीं समझा, कुछ भी नहीं बताया मुझे।ज़िदगी को
इतना कोपलिकेट कर दिया तुमने।क्यों नहीं बताया ये सब?’ मैंने नाराज़गी से पूछा।
‘तुम्हारी ज़िदगी है... बीवी है....
मैं तुम्हारी ज़िदगी नहीं ख़राब करना चाहती थी...’ उसने कहा।
‘क्या शादी और क्या ज़िदगी... काग़ज़
पर बना एक झूठा रिश्ता था काग़ज़ पर ख़त्म हो गया।तुम जिस रिश्ते का इतना लिहाज़
कर कर रही थी उसने कभी मेरा ख़याल तक नहीं किया’ मैं तो हर तरह से बरबाद ही रहा
महक... तुमने भी कभी....’ अब गला रूँध गया था और अल्फ़ाज़
ख़त्म हो गए थे।
बच्चा हैरान
परेशान दोनों को देख रहा था।
‘क्या नाम है मेरे बेटे का..?’ मैंने उसे चूमते हुए पूछा।
‘आफ़ताब...’ उसने धीरे से कहा।
‘अब तुम, मै और आफ़ताब सब साथ रहेंगे, समझी!’ मैंने हक़ से कहा तो उसने हामी में
निगाहें नीची कर ली।
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