सुनो,
उस दिन,
तुमने
वो
तस्वीर
भेजी
थी
ना,
जिसमें मेरी
पेंटिग
ऊपर
के
ख़ाली
पडी़
दिवार
पर,
धूल में
अटी
हुई,
पुरानी
यादों
के
साथ
टंगी
थी,
वो जानकर,
आँखें
झलक-सी
गई
मेरी।
सुनो,
तुमने मेरे
वो
अर्चीज़गैलरी
से
लिए
हुए,
बल्क एड
वाईट
कार्ड,
जो
मैंने
बहुत
ढूढ़
कर
चुने
थे,
तुम्हें बर्थडे
पर
देने
के
लिए,
फाईल
में
रखे
हैं
तुमने,
वो जानकर,
आँखें
झलक-सी
गई
मेरी।
सुनो,
वो किताब
भी
रखी
है
ना,
जिस
पर
शरारत
में,
कुछ लिख
कर
भेजा
था
मैंने,
चिढाने
के
लिए
तुम्हे,
तुमने बताया
के
वो
पेज़
आज
भी
यू
ही
मुड़ा
हुआ
है,
वो जानकर,
आँखें
झलक
सी
गई
मेरी।
सुनो,
मुझे लगता
था
के
हर
दिन
नया
रखने
की
खुआईश
में,
आपने उन्हे
कूड़े
की
मानिद
जाने
दिया
होगा,
वो इतने
अहम
होंगे
और
यू
बरसो
सजों
के
रखोगे,
वो जानकर,
आँखें
झलक
सी
गई
मेरी।
सुनो,
एक सवाल
है
जो
गूंजा
करता
है
ज़हन
में,
फेंक क्यो
नहीं
देते,
इतनी
पुरानी
बेकार
चीज़ो
को,
क्यो सम्भाल
कर
रखा
है
उन्हें
किसी
ख़ज़ाने
की
तरह,
मुझे भी
तो
यू
ही
जाने
दिया
था,
रोकने
की
कोशिश
किये
बग़ैर....
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