ये जो बात बात पर तुम आज कल नाराज़ होने लगे हो,
इस रिश्ते में क्या अब वो पहले वाली बात नहीं रही,
या इस रिश्ते का सफ़र इतना ही था, जो अब मुकम्मल हो गया।
सुनो...
बहुत तकलीफ़ होती है मुझे और वजह समझ नहीं आती,
अपने ही जज़्बातों में, मैं दबकर थकान सी रहती है,
नम आँखो और ख़ाली दिन में तुम्हारा इंतेज़ार सा रहता है।
सुनो....
मैं ये नहीं कहती के हमेशा मैं सही और तुम ग़लत होते हो,
पर ये ग़लत सही का फ़ैसला, क्या रिश्ते को भी ग़लत बना देगा,
मैं समझ नहीं पाती के एक अना के लिये, मुझे यू कैसे छोड़ देते हो।
सुनो....
वक़्त के साथ सब बदल जाता है, सुना था बहुत,
क्या ऐसा जज़्बाती और रूहानी रिश्तों के साथ भी होता है?
हालत क्या सच में क़ाबू कर, इंसान को बदल देते हैं।
सुनो...
ये बेवज़ह की कश्मकश और उलझन से मैं निकल कर,
एक मासूम से सवाल का जवाब तलब करना चाहती हूँ,
तुम दूर सही और मजबूर सही पर जहाँ भी हो, मेरे हो ना?
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