Friday, 14 October 2022

लाजवाब आँखे

 ©ईरम फ़ातिमा 'आशी'

वो सुख़नवर काजल को, क़लम की स्याही बनने चले हैं, 

नादाँ हैं ये ख़बर नहीं, नशे से लबरेज़ हैं, ये शराब आँखे।


मतब-ए-इश्क़, की गिरफ़्त से भला कौन निकल सका, 

ये ही ज़िन्दगी की दिलकश, सहर-ओ-शाम आँखे।


ख़ार-ए-दामन में महकते गुलाबों का है, आशियाँ, 

वो फ़क़त चुन के ख़ार, लिखेंगे बेमायनी आँखे।


सुकूत-ए-क़ल्ब अब उनका रहे भी तो किस तरह, 

इज़्तिराब करतीं हैं किस क़दर शोर, ये हमारी आँखे।


किस तरह बच सकोगे, वार-ए-शमशीर से इनकी, 

के ख़ुदा ने बक्शी हमें दिल-फरेब, लाजवाब आँखे।

 

*सुख़नवर – हुनरमंद, *मतब – मदरसा, *ख़ार - काँटे *सुकूत ए क़ल्ब - दिल की ख़ामोशी, *इज़्तिराब – बेचैनी, *वार ए शमशीर - तलवार का वार



 

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