लाजवाब आँखे
©ईरम फ़ातिमा 'आशी'
वो
सुख़नवर काजल को, क़लम की स्याही बनने चले हैं,
नादाँ हैं ये ख़बर नहीं, नशे से लबरेज़
हैं, ये शराब आँखे।
मतब-ए-इश्क़,
की गिरफ़्त से भला कौन निकल सका,
ये ही ज़िन्दगी की दिलकश, सहर-ओ-शाम आँखे।
ख़ार-ए-दामन
में महकते गुलाबों का है, आशियाँ,
वो फ़क़त चुन के ख़ार, लिखेंगे बेमायनी आँखे।
सुकूत-ए-क़ल्ब
अब उनका रहे भी तो किस तरह,
इज़्तिराब करतीं हैं किस क़दर शोर, ये हमारी आँखे।
किस
तरह बच सकोगे, वार-ए-शमशीर से इनकी,
के ख़ुदा ने बक्शी हमें दिल-फरेब, लाजवाब आँखे।
*सुख़नवर – हुनरमंद, *मतब – मदरसा, *ख़ार - काँटे *सुकूत ए क़ल्ब - दिल की ख़ामोशी, *इज़्तिराब – बेचैनी, *वार ए शमशीर - तलवार का वार
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