©इरम फातिमा
'आशी'
इस अँधेरे की कोई तो सुबहः होगी,
दर्द जो है बेपनाह, उसकी
कोई दवा तो होगी,
पूछने पर उनके कह तो देते हैं के, सब ख़ैर है,
एक ही ज़ख़्म है, पर अज़ीयत तो बारहा
होगी।
बहुत नरम-गरम सा है तेरा मेरा रिश्ता,
साथ है कभी तो, कभी लम्बा-सा वक्फा,
तू फ़क़द समझता है सब जज़्बातो को मेरे,
इन हवाओ ने मेरी हर आह, ज़रूर
पहुंचाई होगी।
हम साथ निभाते गये सबका, आयी ना दुनियादारी,
वहमों में ख़ुश होते रहे, समझ ना आयी खुदगर्ज़ी,
अब ये आलम है के भीड़ में तन्हा महसूस होता है,
आहट से लगता है, फिर
किसी ने आवाज़ लगाई होगी।
यू ही नहीं ठहर जाते कुछ मौसम मुझ में,
तन्हाई से घबराकर, कोई महफ़िल जमाई होगी,
तेरा क्या पता किस बहाने से साथ छोड़ जाये,
सब्र करने को, ये बात हमने ख़ुद को समझाई
होगी।
ज़िन्दगी के सफ़र में तन्हा चलते हैं सब मुसाफ़िर,
माना के मिलना बिछड़ना मुक़र्दर की बात है,
रिश्ते बिखर जाते हैं वो जिन्हे हम सँभाल नहीं
पाते,
पुकारे भी तो वो कैसे, उसकी
अना बीच
में आयी होगी।
No comments:
Post a Comment