©इरम फातिमा 'आशी'
रुकी, थमी-सी, कभी तेज़ गाड़ी-सी दौड़ती,
सासें हैं चंद क़ैद सीने में मेरे, अजनबी-सी,
कभी काबू में, तो
कभी बेकाबू-सी
सासें,
इसके चलने रुकने का ही नाम है, ये ज़िन्दगी।
फिर दुनिया में कुछ पाने की चाहत ही क्यों,
ये मोहब्बतें, ये
हसरते, ये खाविशे ही क्यों,
सांसो के रुक जाने से, टूट जाता है सिलसिला,
अनदेखी सांसो की डोर-सी बंधी है, ये
ज़िन्दगी।
क्या रिश्ते-नाते, क्या शौरत-दौलत, शीशे
का महल है,
अपने सहूलत से मिलते हैं सब, हर
रिश्ता धोका है,
जो सफ़र अकेले शुरू किया, वो
अकेले ख़तम करना है,
वीरान सहरा में अकेले चलने का नाम है, ये
ज़िन्दगी।
शायद सफ़र करती है अलग-अलग जिस्मो का,
एक जिस्म में सांस लेती, दूसरे
को छोड़ती ज़िन्दगी,
दिल्लगी करती हैं ये सांसे हमारी, हमसे
ही,
अपनी होकर भी ग़ैर-सी सासों के हाथ
में, ये
ज़िन्दगी।
ये सासें लेना कोई वहम तो नहीं सादियो से,
जिये जाना छलावा हो और हम समझते हैं ज़िंदगी,
मुमकिन है के दो सासों के बीच का कोई ख़्वाब है,
हयात-ए-सफ़र मानते हैं, मुमकिन
वहम हो ज़िंदगी।
No comments:
Post a Comment