Thursday, 10 March 2016

वसीहत




सुनो,

कुछ सौंपना था तुम्हें ,

जो तुम्हारा ही है, सदियों से,

बस यू ही लापता और लावारिस ही रहा,

कुछ मैं ख़ामोश रही, कुछ तुम अंजान रहे।


सुनो,

कब तक बचेंगे दोनों,

एक हक़ीक़त से, आँखें मूँद कर,

जानकर भी सब और महसूस भी कर के,

ऐसे तो क़ुदरत के सच नहीं बदल जाया करते।


सुनो,

मुझे ग़लत तो नहीं समझ लोगे ना,

कोई खुआईशे नहीं कर रही तुमसे,

फिर भी तुमसे ही कहने हैं, सब अहसास अपने,

एक कारवाँ है साथ मेरे, जो मंज़िल पर पहुँचाना है।


सुनो,

थक सी गई हुँ मै इन्हें ढोते-ढोते,

ज़ख़्म कोई लाईलाज से हो रूह पर जैसे,

ये अमानत है तुम्हारी, सो तुम्हें ही सौंपनी है,

वसीहत ये जज़्बातों की तुम्हारे ही नाम करनी है।


सुनो,

कहना है के मुहब्बत है तुमसे बेपनाह,

रिश्ता है दुनियादारी से परे, एक रूहानी सा,

साँसो के सिलसिले को कैसे कह दूँ ज़िदगी मैं,

धड़कने महज़ दिल की ज़िंदा रखने का ज़रिया थी।


सुनो,

ये मेरा जिस्म रहा तो है ज़िंदा बाक़ायदा,

लेकिन रूह रही तेरी तमन्ना में तड़पती सी,

गर अलविदा कह दूँ दुनिया को तो क्या,

आओगे ना मेरी आख़िरी बिदाई को तुम?


सुनो,

मुझे श़क नहीं तेरी वफ़ा पर ज़रा भी,

पर ये लाज़मी नहीं के तुम मेरे लिए परेशां हों,

तेरी तमन्ना मे आई थी, पर अब एक इलतिजा है,

हो सके तो गिरफत से मुहब्बत की रिहा कर दो मुझे।





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