ये दर्द कैसा है रूबरू मुझ में, साँसों में रवाँ है बेबसी से और ख़त्म नहीं होता,
एक सदा तो सुनाई देती है, मुड़ के देखती हुँ तो कोई हमसफ़र नहीं होता।
अदा करनी होगी मेरी रूह को क़ीमत, मर-मर के जीने की कुछ इस तरह,
यू बार-बार मौत के दर पर खड़े हो कर मुझ से भी अब, जीना नहीं होता।
क्या है वो अंजान अहसास मरने का, जो इस तरह दस्तक दे के लौट जाया करता है,
ज़िदगी से कर देता है जुदा मुझे,पर ख़ुदाया वो मौत भी नहीं होता।
मैं ये नहीं कहती के खुआईशे मुझ में ना रही, मैं बेज़ार हो गई और कोई तलब ना रही,
धड़कते दिल और साँसों का सिलसिला, हमेशा ज़िदगी का निशाँ नहीं होता।
दिल-ए-नादाँ की बेबसी देखिये, हर बार करता है दावे मुहब्बत के बेपनाह,
अरे वो अमानत है किसी ग़ैर की, तेरा होता तो, तुझे मिल ना गया होता।
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