Tuesday, 29 March 2016

ऐ ज़िदगी!





ऐ ज़िदगी! तेरे सैकड़ों फ़लसफ़ो के ख़ातिर, तुझे सजदे हज़ार,

हर मोड़ पर नये हुस्न-ओ-फ़रेब, हर लम्हे में तेरे, मुहब्बतें बेहिसाब।


कभी रोशन सी सुबह तेरी, कभी खौफनाक से, हर सू अंधेरे साए,

कुदरत के सतरंगी बिखरे रंग सुहाने और हर तरफ फैला हुआ शबाब।


तुझ पे एतबार करे भी तो कैसे, फ़ितरतन तू है सदियों से बेवफ़ा,

कहीं सहरा के दिल फ़रेब शरारे, कहीं ख़ुशियों का समंदर लाजवाब।


तुझ से है कायनात सारी और उस से जुड़ी ये ज़िंदगियाँ हमारीं,

तेरे हर रंग से रंगना सीखा मुख़्तलिफ़, कोई फ़रिश्ता सीरत तो कोई इंसान ख़राब।


ख़फ़ा क्यों है ख़ुद से, रोता है क्यों ग़र किसी ने अपना बना कर तुझे छला,

देख बहारों की दिलकश महफ़िल और बाँहें फैलाए कोई और हमनवाब।






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