सुनो जाना, कुछ बताना है तुम्हें,
नीले फ़ीते
का घड़ी जो तुमने कलाई में बाँधी थी,
निकलते वक़त
कलकत्ता वाली बुआ के घर छूट गई,
भूल से आगे
बढ़ गया बहुत, फ़्लाइट जो पकड़नी थी।
सुनो जाना, ग़ुस्सा तो ज़रा-सा आएगा तुम्हें,
भौहें तान
लोगी पल-भर को, दिल हौले से टूटेगा,
फिर सम्भाल
जाओगी, जैसे कोई बात ही नहीं,
समझाओगी के, आख़िर एक चीज़ ही तो है।
सुनो जाना, पता ही है ना तुम्हें,
लापरवाही है
ज़रा फ़ितरत में मेरी,
इसमें ग़लती
भी तो आख़िर तुम्हारी ही है,
हर दफ़ा माफ़
कर देती हो, मुझ पर बिगड़े बिना।
सुनो जाना, मैं जानता हुँ के तुम्हें,
मेरी इस
लापरवाही से बुरा लगेगा तुम्हें,
कोई बात नहीं
कहकर फीकी सी मुस्कुराहट दोगी,
कुछ कह दो, तेरे कुछ ना कहने से डर लगता है।
सुनो जाना, दिल से कहना है तुम्हें,
उस घड़ी से, तेरा हर घड़ी का साथ लगता था,
अब वक़त का
पता तो चल जाएगा, लेकिन,
वो तेरा हाथ
थामें रहने के अहसास का क्या?
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