Monday, 2 November 2015

मैं एक इंसान हुँ.....




मैं हैंरा हुँ, परेशां हुँ, ये कैसे सवाल हैं हर सू , मुझ पर उठी उँगलियाँ क्यों,

मै अपने ही वतन में अजनबी-सा, बेघर हुँ, कहते हैं के मैं मुसलमान हुँ।


ये मेरी मिट्टी, ये मेरा चमन, यहाँ पैदाईश मेरी, क़ुर्बां हुए मेरे पुरखे इस की आज़ादी के लिए
 
फिर दर-ब-दर मैं ही क्यों, नफ़रत है निगाहों में हर सू, कहते हैं के मैं मुसलमान हुँ।


मेरे मज़हब ने सिर्फ़ मुहब्बत और इंसानियत सिखाई मुझे, मिल कर रहा सदियों
से मैं सभी से,

नहीं जानता किसी दहशतगर्दों को, अपने घर में महफूज़ नहीं, दहशत में ख़ुद हुँ, के मैं
मुसलमान हुँ।


मैंने एहतराम किया घुंघट का हमेशा, मेरी बेटी के नाकाब पर तुम्हें एतराज़ आज क्यों,

मैंने तुझे बदलने को नहीं कहा कभी, मेरे लिबास पर शक तुझे, क्यों के मैं मुसलमान
हुँ।


मैंने पूजा की मूर्तियाँ बनाई, माला और खड़ाऊँ भी, साथ दिया तेरा हर दौर के

त्यौहार में ही,

मैंने होली खेली और दिवाली भी रोशन की, डांडिया पर अब मेरे पहरा क्यों, के मैं
मुसलमान हुँ।


मैं मज़दूर हुँ, कहीं मालिक भी, हीरो फ़िल्मों में भी, अपने हुनर और इल्म से कमाता हुँ,

सरहद पर भी फ़िदा होता हुँ वतन के लिए, जाँनशी मैं हर दोस्त के लिए, के मैं
मुसलमान हुँ।


सियासत के बहके रहनुमाओ, भाई-भाई में फ़र्क़ तुम जताते हो, गर्ज के लिए अपनी उन्हे

लडवाते हो,

तुम्हारी सियासत की सिकती रहे रोटियाँ, तुम मेरी बली चढ़ाते हो, के मैं मुसलमान हुँ।


मैंने पढ़ी क़ुरान, बाईबिल, गीता, गुरू ग्रन्थ भी, तालीम ने मुझे और एहतराम सिखाया 
सभी का,

मैं एक बाशिंदा इस मुल्क का, हक़ की बात कहूँगा, मुसलमान से पहले,इंसान हुँ, इंसान 
हुँ,मैं एक इंसान हुँ।





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