रतजगे किये अपने ही इंतज़ार में हमने, भटका किये अंधेरो में,
उम्मीद-ओ-आरज़ू की दिखेगी रौशनी, के कहीं तो सहर होगी।
ज़िन्दगी में दोस्त बेहिसाब थे, मगर मुफलिसी रही मोहब्बत की,
सजदे किये खूब इबादत में मगर, दुआये हमारी बेअसर रही होंगी।
अहद-साज़ कुबूल कर लिया सब, पर कोई हमे ना अपना सका,
इंफिरादी कोशिशें हमने कीं, यकीनन उनमें कोई कसर रही होगी।
जो हमनवा दूरअंदेश थे, वो मंज़िल गर्दनना हुए और सुक़ू पा गये,
गम-गश्ता हुए हम, मुमकिन है के हमारी ज़ईफ़-अल-बसर होगी।
मनाये तो कैसे, के सबब मालूम नहीं उनकी बा’इस-ए-नाराज़गी का,
देखकर ख़ाक कर देते, के ख़फ़ा होके उनकी निगाह-ए-क़हर होगी।
अहद-साज़ - युग की शुरुआत
इंफिरादी- अकेले
मंज़िल गर्दनना – ठहर जाना
हमनवा- दोस्त
गम-गश्ता – खो जाना
निगाह-ए-क़हर- गुस्से से देखना
बा’इस-ए-नाराज़गी- नाराज़गी की वज़ह