ख़ुशशक्ल वो और ख़ुश मिज़ाज भी, जब मिला बड़े ऐतियात से मिला,
डर था उसे जज़्बाती हो जाने का, वो जब मिला बड़े परहेज़ से मिला।
बैठे साथ कुछ लम्हे और बेतक़ल्लुफ़ बातें भी की ज़मानेभर की,
हाथ मिलाया मगर नरमी से, वो जब मिला बड़े परहेज़ से मिला।
ये नहीं के वो खुदगर्ज़ है, लेकिन इस क़दर ख़ौफ़ ज़रूर है उसे,
अपनेपन से परहेज़ है उसे शायद, वो यू दायरे बना के मिला।
अजब सफ़र जो रुका ही नहीं, ये वो लम्हा जो कभी थमा ही नहीं,
लफ्ज़ जमे से रह गये दरमियान, के किसी ने कुछ कहा भी नहीं।
नामालूम सफ़र और बेनाम मंज़िल, साथ हैं पर कोई वादा नहीं,
दर्द एक है शायद जिस से जुड़कर वो हमदर्द से, हमसफ़र बना।
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