वो सिसकियाँ जो सीने में घुट गयीं, वो आँसू जो आँखों से टपके नहीं कभी,
वो दर्द जो अंदर ही अंदर पलता रहा, वो चीखें जो गले से निकलीं नहीं कभी,
दुनिया की खुदगर्ज़ भीड़ में तन्हा खड़ी, अपने ग़मो से जो लड़ती रही मैं,
वो जो फ़क़त साथ था मेरे, ख़ुदा, मेरे मौला वो तू ही था, वो तू ही था।
वो दास्ताँन-ए-सफ़र जो कही नहीं, वो ग़म-ए-दास्ताँ जो कभी लिखी नही,
वो दरिया-ए-ग़म जो बहे नहीं, वो ग़मो पर पर्दे-सी हँसी जो बिखरी रही,
वो भटकाव मेरा अंधेरो में, बेज़ारी दुनियादारी से, हार मेरी मायूसियों से,
वो जो फ़क़त साथ था मेरे, ख़ुदा, मेरे मौला वो तू ही था, वो तू ही था।
साथ जो किसी ने दिया नहीं, मोहब्बत से हाथ, मेरे सर पर जो रखा नहीं,
सुकून की थपकियाँ जो कभी मिली नहीं, प्यार से गले जो मुझे लगाया नहीं,
थकान से कभी ज़मीन पर बैठकर, कभी मेरे गीले तकियों के सरहाने,
वो जो फ़क़त साथ था मेरे, ख़ुदा, मेरे मौला वो तू ही था, वो तू ही था।
मेरे आँसू, मेरे ग़म, मेरी तन्हाइयों में मेरे दर्द और मेरी करहाटों में,
मेरे अंधेरो, मेरे उजालो में, मेरी भूख में और मेरे खाने के निवालो में,
मेरी इबादत की तस्बीयों के दानों में, मेरे सजदों के सभी शुकरानों में,
वो जो फ़क़त साथ था मेरे, ख़ुदा, मेरे मौला वो तू ही था, वो तू ही था।
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