Sunday 29 March 2015

ये रिश्ता कैसा है?





कुछ तो है जो कहा ही नही, हकीकत है कोई जो समझी ही नहीं, फिर ये रिश्ता कैसा है?

नामालूम सी ये उलझन कैसी है, अनछुई हैं बातें बहुत सी, कुछ अनकहे जज़्बात हैं।


अहसास तेरे मेरे, कुछ उलझे से, समझदारी से परे, दुनियादारी से अलग,

तू मुझ से जुदा कहीं और जुड़ा है मुझ से ही, अनजान सी बंदिश में, हिस्सा है मेरा ही।


कोशिश बहुत की मैने मुकर जाने की, तूने भी आज़माए रास्ते, जो मुख़तलिफ़ थे,

क्या मिला सब पा कर दुनिया में, खो कर एक दुसरे को, खो दिया वजूद ही अपना।


क्यों झगड़ते हो छोटी-बड़ी बातों पे, कुछ हुई और कुछ हो ही ना सकी मुलाक़ातों पे,

क्या उलझन है जिस में तुम उलझे हो, क्यों नामालूम रस्मों और मुझ पर बिगड़ते हो।


मै मानती हुँ के मैंने ख़ुद के क़रीब नही आने दिया तुम्हें, हाथ तक छुड़ा लिया था जबरन,

तेरे सर को सहलावाने की खुआईश भी अधुरी रह गई थी, कंधे पर भी हाथ नही रखने दिया।


पर क्या वही इम्तिहान था मेरे चाहने और ना चाहने का, यू ही जताना होता है अपनापन?

जिस्म क़रीब आए तो मुहब्बत, वरना ग़ैर समझ लेना? क्या मै रूह नही छू सकी तुम्हारी?


सवाल है कई जो आज भी बेचैन रखते हैं, रात के अंधेरे को और गहरे कर जाते हैं, 

दिल की गहराइयों में उठी तड़प, आँखो की नम कर देती है, बह जाता है दर्द आँसू बन कर।


फिर रोशन हो उठता है चिराग़ें--दिल, नए सिरे से सुलगने को, तेरे जज़्बातों में जीने और मरने को,

दूर हो कर भी तुम पास हो, ग़ैर के होकर भी मेरे अपने और तुम कहते हो, तुमने मुझे नही छुआ...