Tuesday 29 December 2015

मेरे बग़ैर?




मैंने पुकारा तुझे, तेरा नाम लिए बग़ैर, तू जो साँसों में रवाँ था मेरा साथ निभाए बग़ैर,

मेरा सब्र की इंतिहा देखिये, करती रही ज़िक्र तेरा सरे महफ़िल, तेरा नाम लिए बग़ैर।


तू जब साथ था तब भी साथी कहाँ था, तेरी हसरतें जहाँन भर की काफ़ी थी, मेरे बग़ैर,

मुझे ख़बर थी अंजाम-ए-मुहब्बत की, तंहा ही सफ़र गुज़रेगा ज़िंदगी का मेरी, तेरे बग़ैर।


मुस्कुराती रही ख़ामोशियो की ओढ़ कर चादर, किसी से भी शिकवे-शिकायतें, तेरी किए बग़ैर, 

वो महमां है फिर लौट जाएगा अपनी मंज़िल, मैंने बेलौस मुहब्बत की, हिज्र की सोचे बग़ैर।


कोई इतना भी तंहा होता होगा कहीं, के धड़कने ख़ुद की सुन सके, कोई शोर हुए बग़ैर,

मुहब्बत है बेपनाह और दुआएँ बेअसर, विसाल-ए-यार हो कैसे, किसी मुअज्ज़े के बग़ैर।


सब कुछ पास होके भी एक ख़ालीपन हमसाया-सा है, हँसना सिख लिया, ख़ुश हुए बग़ैर,

हयात-ए-सफ़र मे छू कर बुलन्दियाँ, कभी तुझे भी खलती है कमी कोई, मेरे बग़ैर?






Monday 21 December 2015

जज़्बातों की वसीहत





ख़ामोशी सी पसरी है, बेचैनियाँ और बेनूर सा है हर तरफ़ ही,
वो मसरूफ हैं इस क़दर, या के ये मौसम ही कुछ सर्द है।

ये बेताबियाँ है इस तरह, के दिल बेज़ार सा हुआ जाता है,
यू तो लबों पर मुस्कुराहट है मुसलसल लेकिन कहीं दर्द है।

हवाओं से कुछ कहते हुए डर है, कही राज़ ना हो जाए बेपरदा,
वो धूप सेकते होगे गरम सी, यहाँ तो तंहाईयो की ठंडी गर्द है।

कोई बताए के माजरा क्या है, मैं ख़ाली सा हुँ, या ये है सन्नाटा मुझ में ही,
कोई हादसा हुँ, या के किसी की बेवफ़ाई का आलम, अब मुझ में दर्ज है।

मालिकाना हक़ दे दिया, लिख दी अपने जज़्बातों की वसीहत उसके नाम,
ख़ाली हाथ वापसी होगी के साँसें साथ हैं छोड़ती, और जिस्म भी ज़र्द है।










Tuesday 15 December 2015

मेरा हिस्सा




आज कुछ लम्हे उस पर ख़र्च कर आया, वो मेरा हिस्सा था कह दिया, हिसाब 

करने जो बैठी ज़िंदगी, 

क्या खोया क्या पाया इस सफ़र में, ये बाकि सोचे, अब के मै ख़ुद के लिए, जी

आया अपनी ये ज़िंदगी।


कुछ जमाख़ोरी की मैंने ज़माने से छुप कर, दिल के तहख़ाने में दबाई थी

उस की तस्वीर और यादें,

आज उस से मिल कर सब जज़्बात बेपरदा कर दिए, कह आया हाल-ए-दिल और दिल

की लगी।


बचपन बेपरवाही में गुज़रा, जवानी जम्मेदारियो की नज़र होकर रह गई, हशीये पर रहे जज़्बात मेरे,

ख़ुदा मेरे आसपास ख़फा-सा रहा मुझ से और मै बुतग़ाहो में तलाश

करके करता रहा बंदगी।


तशनगी ने उसकी कभी सूकून ना लेने दिया, बेचैनियों में कटा तो कभी तलब

में उसकी, ये सफ़र,

वो जो मेरा था, मेरे लिए रहा बेताब उम्र भर, और मै ग़ैरों में तसकीम करता रहा उसकी
हिस्सेदारी।


हसरत सी रह जाती अधुरी ख़ुद के लिए जीने की, ग़र ना जाता मिलकर उससे

ख़ुद को मुक्कमल करने,

मेरे अाईने में अक्स उस महबूब का ही दिखा करता था, कैसे बहलाता रोज़ खुआईशए
वो ज़िद्दी।


बेतरतीबी से टुकड़ों में बिखरा सा वजूद मेरा, तमाशाई-सा लगता है ये बनावटी 

ये सारा जहाँ,

वो लम्हे जो साथ गुज़रे उसके तराश के प्यार से, मैंने ख़ुद को तलाश लिया 

मुहब्बत में उसकी।