Tuesday 12 September 2017

उलझने



रूहों की इतनी कुरबत है के, वो हौसला कहाँ से लाऊँ,

तेरे पास होकर, दूर हो सकू वो फ़ासला कहाँ से लाऊँ...


बात जिस्मों की हो तो, मुमकिन है अलग हो जाना,

तेरी रूह से अलग हो सके, वो जुदाई कहाँ से लाऊँ...


ये जो रिश्ता है, आसमानों में साज़िश हुई होगी कोई,

दुनिया मे बेनाम सा है, मुकर जाने का ताब कहाँ से लाऊँ...


एक कश्मकश सी रहती है ज़हन में, के वो क़ुबूल नहीं करता, 

नकार सकू दिल से मैं, वो पथ्थर दिल कहाँ से लाऊँ....


कुछ तू ही समझ ले, मेरे हमनवाँ इस ज़िदगी की उलझने,

मुझे समझ सके कोई जहान में, वो शक्स कहाँ से लाऊँ...